बिना कीटनाशक, बिना खर्च… इस किसान ने दिखाई जैविक खेती की चमत्कारी रास्ता, धान की भूसी से लाखों का फायदा

बिलासपुर. जैविक और प्राकृतिक खेती की दिशा में देश भर में कई नवाचार हो रहे हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के मल्हार में रहने वाले किसान जदुनंदन प्रसाद वर्मा ने जो मिसाल पेश की है, वह विशेष रूप से अनुकरणीय है. वर्मा का ‘डी.जे. वर्मा जैविक फार्म’ आज न केवल छत्तीसगढ़ के किसानों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया है, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी जैविक खेती को अपनाने वालों को नई दिशा दे रहा है. उन्होंने फसल अवशेष प्रबंधन और खरपतवार नियंत्रण की एक ऐसी पद्धति विकसित की है, जो पर्यावरण के अनुकूल, लागत रहित और अत्यधिक प्रभावी है. आइए जानते हैं उनकी खेती की पद्धति और इसके लाभों के बारे में विस्तार से.

फसल अवशेषों का रचनात्मक पुनरुपयोग
धान की कटाई के बाद खेत में बचे फसल अवशेषों को नष्ट करने के बजाय जदूनंदन वर्मा उनका रचनात्मक रूप से पुनरुपयोग करते हैं. वे बताते हैं कि खेत की गहरी जुताई वे साल में केवल एक बार करते हैं, फिर उसी खेत से साल भर में तीन से चार फसलें ली जाती हैं. इससे न केवल मिट्टी की गुणवत्ता बनी रहती है, बल्कि उत्पादन लागत भी घटती है.

खरपतवार और कीट नियंत्रण में कारगर तकनीक
फसल अवशेषों को खेत में ही छोड़ देने से खरपतवारों की वृद्धि पर स्वतः ही नियंत्रण हो जाता है. इससे निंदाई-गुड़ाई पर आने वाली मजदूरी, कीटनाशकों के उपयोग और सिंचाई की लागत में उल्लेखनीय कमी आती है. खेत के पोषक तत्त्व फसल को ही मिलते हैं, जिससे उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ती है.

मल्चिंग से नमी संरक्षण और ऊर्जा की बचत
जदूनंदन वर्मा खेतों में पुआल का उपयोग मल्चिंग के रूप में करते हैं. इससे मिट्टी की सतह पर नमी बनी रहती है और बार-बार सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती. नतीजतन, पानी और बिजली दोनों की खपत में कमी आती है.

जीवांश वृद्धि और मृदा सुधार
खेत की सतह पर फसल अवशेषों की परत बिछाने से केंचुए और अन्य मित्र जीवों का जीवन-चक्र सुचारु रूप से चलता है. इससे मिट्टी में जैविक कार्बन और जीवांश की मात्रा बढ़ती है. इसका सीधा असर जलधारण क्षमता, पोषण संतुलन और फसल की गुणवत्ता पर होता है.

शून्य बजट में दोहरी फसल
इस वर्ष वर्मा ने एक एकड़ खेत में टमाटर की खेती की. खेत की जुताई कर उसमें जैविक खाद, सरसों खली और नीम खली मिलाई गई. पुनः जुताई कर बेड बनाकर उस पर मोटा पैरा बिछाया गया और ड्रिप सिंचाई प्रणाली के माध्यम से टमाटर के पौधे लगाए गए. फसल की समाप्ति के बाद टमाटर के पौधों को खेत में ही छोड़ दिया गया और बिना किसी अतिरिक्त खर्च के उसी खेत में कुम्हड़ा (कद्दू) की फसल ली गई. यह पूरी प्रक्रिया शून्य बजट पर आधारित रही, जिससे लागत नगण्य रही और लाभ अधिकतम.

जदूनंदन प्रसाद वर्मा की खेती पद्धति दिखाती है कि यदि वैज्ञानिक सोच और प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग किया जाए, तो खेती लाभकारी होने के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी अनुकूल हो सकती है. छत्तीसगढ़ की यह मिसाल देश भर के किसानों को जैविक और टिकाऊ खेती की दिशा में नया रास्ता दिखा रही है.

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